Friday, July 05, 2013

Unmukt Gagan Mein..

पंछी जो होती तो उड़ जाती
दूर किसी उन्मुक्त गगन में
पर जो ये छोटी सी है आशा
रह जाएगी क्या मेरे ही मन में?

हस्ती, गाती, लहराती मै
फिरती रहती निशचिंत फिकर से
पर जो इतनी ये उलझन हैं
क्या निकलेंगी मेरे जीवन से?

बिखरे हैं या सिमट गए हैं
कुछ अच्छे कुछ मुश्किल पल हैं
पर जो मैं अब चल न पाई
रख लेना फिर अपने दर में,

सोचती  हूँ की क्या अंत हो गया
क्या बस इतना सा ही सफ़र है
पर जो इतना आसान  होता
ये कहाँ जो वो मंज़िल है,

फिर अब सोचा मैंने ये कि
कोशिश करते रहना धर्म है
पंख बटोरे ताक रही हूँ बस,
उड़ जाना है उन्मुक्त गगन में।

2 comments:

  1. Sahi... Really loved it... Keep writing and no more such long gaps. All The Best! :-)

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